Naxsalwad Aur Corporate Connection
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आज नक्सली आतंक के पर्याय बन चुके हैं। आज नक्सली स्वयं को विकास-विरोधी साबित कर चुके हैं। ऐसी परिस्थितियों में आदिवासी क्षेत्रों में शांति-बहाली का कौन-सा रास्ता शेष बचा है ये बुद्धिजीवी बताने में पूर्णतः असमर्थ है। दरअसल, ये बुद्धिजीवी एकतरफा मानवाधिकार के हिमायती हैं-जिन्हें सिर्फ नक्सलियों का ही अधिकार दिखता है, जिसे वे आदिवासी के अधिकार के रूप में प्रस्तुत करते हैं। आखिर इन आदिवासियों को नक्सली नेताओं ने पिछले 40 वर्षों में बुनियादी हक के लिए प्रचलित व्यवस्था के खिलाफ सिर्फ हिंसात्मक, आतंककारी और विध्वंसक संघर्ष का विकल्प ही क्यों कर सुझाया? अपने प्रभाव-क्षेत्र में पले-बढ़े और युवा हो चुके वनपुत्रों को नक्सलियों ने कृषक, कारीगर, कलाकार, मास्टर, डॉक्टर, मिनिस्टर बनाने के बजाय सशस्त्र सैनिक में क्यों तब्दील कर दिया? इन्हें क्योंकर गुरिल्ला ट्रेनिंग दी गई? उन्हें नक्सलियों ने विकास के लिए संघर्ष के सर्वमान्य चेतनात्मक और सभ्य तरीकों से आखिर क्यों नहीं जोड़ा? इन सारे प्रश्नों के कोड़े भी ऐसे बुद्धिजीवियों की पीठ पर बरसाए जाने चाहिए, जो देश में भ्रम का धंधा करते हैं।
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