Samay se Pare Sarokar
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एक दिन के आने और बीत जाने के बीच समय सचमुच इतनी तेजी से बीत रहा है कि हम सभी उसे बड़ी हैरत से देख रहे हैं और इसी तेजी से बीतते समय के साथ हम, हमारी दुनिया, हमारा जीवन, हमारे लक्ष्य, हमारी प्राथमिकताएं, हमारे जीने के तौर-तरीके सब-कुछ इस तरह से बदल रहे हैं कि इनके बीच जिस शब्द पर सबसे ज़्यादा हैरानी होती है, वह है 'हम', क्योंकि अब 'हम' शब्द रह ही कहां गया है! हर शब्द की शुरुआत और अंत आज 'मैं' से ही जुड़े हैं। इतनी बदली हुई सूरत के साथ क्या आज जो समाज और सामाजिक प्राणी अर्थात् मनुष्य दिख रहा है, वह हम ही हैं? क्या यह वही समाज है, जैसा हम हमेशा से चाहते आए हैं और क्या हम वास्तव में जिस भविष्य का निर्माण करने में जुटे हैं, यह वैसा ही होगा, जैसा हम चाहते रहे हैं? यह विषय एक-एक व्यक्ति से जुड़ा है, पूरे समाज से जुड़ा है, शायद इसलिए इतना उलझा और पेचीदा है कि हम अपने-आपको ही अपनी बात नहीं समझा पा रहे। शब्दों का शोर इतना है कि मौन की भाषा कोई समझ ही नहीं पाता।
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