Taron Par Sookhti Jibhen
Taron Par Sookhti Jibhen
Dr. Sushil Upadhyay
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सुशील उपाध्याय जी की 'दर्द और द्वंद्व की कविताएँ' आद्योपांत पढ़ने के बाद मेरे मन में पहली बात यही जगी कि मनःसामाजिक जद्दोजहद से कई धरातलों पर मुखातिब ऐसे संवेदनशील मन की ये कविताएँ हैं जिसने सत्य का सिरा पकड़ने की बेचैनी भरपूर झेली है और इस क्रम में चौतरफा संवाद भी किए हैं दर्शन से, कविता से, मिथकों से, दैनंदिन यथार्थ के हरेक कतरे से अनंत प्रश्न पूछे हैं! 'आँखिन देखा' ही भोगा हुआ यथार्थ नहीं होता, पढ़ा, सुना, जाना हुआ भी अपना ही होता है। तारों पर सूख रही हैं जीभें, सहमति में हिल रहे हैं सिर दुनिया देख रही है अभिव्यक्ति की आजादी का जश्न ! 'प्रेरणा-पुरुषों' के बुतों पर गिद्धों ने जमा लिया डेरा सिर पर बना लिए घौंसले, अंडों से झाँक रहे हैं बच्चे, पैनी चोंच और पंजे लेकर !
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Dr. Sushil Upadhyay
